
लालसेना ने चंबल मे बिना खून खराबे के उड़ाये थे अंग्रेजो के छक्के
इटावा : दशकों तक दुर्दांत डकैतों की शरणस्थली के तौर पर कुख्यात रही चंबल घाटी का नाम आजादी की लड़ाई में रोशन हुआ था जब कमांडर के नाम से मशहूर हुये अर्जुन सिंह भदौरिया की लालसेना ने बगैर खून खराबे के गोरी सरकार को भारत में दिन गिनने को मजबूर कर दिया था। लालसेना के
इटावा : दशकों तक दुर्दांत डकैतों की शरणस्थली के तौर पर कुख्यात रही चंबल घाटी का नाम आजादी की लड़ाई में रोशन हुआ था जब कमांडर के नाम से मशहूर हुये अर्जुन सिंह भदौरिया की लालसेना ने बगैर खून खराबे के गोरी सरकार को भारत में दिन गिनने को मजबूर कर दिया था।
लालसेना के महत्वपूर्ण हिस्सा रहे गुलजारी लाल के पौत्र एवं वरिष्ठ पत्रकार गणेश ज्ञानार्थी बताते है कि उनके बाबा रायॅल एसर फोर्स मे सेवारत हुआ करते थे लेकिन 1920 मे महात्मा गांधी के अग्रेंजो भारत छोडो आवाहन से प्रेरित होकर नौकरी छोड कर आजादी के आंदोलन मे कूद पडे । कंमाडर साहब के साथ मिल कर चंबल नदी के किनारे तोप चलाने से लेकर बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी बाकायदा अपने साथिये को दिया करते थे ।
ज्ञानार्थी ने कहा कि लालसेना मे करीब पांच हजार के आसपास सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन मे हिस्सेदारी किया करते थे। दरअसल, लालसेना से लोगो के जुडाव इसलिए बढा था क्योंकि ग्वालियर रियासत की सहानूभूति अग्रेंजो के प्रति हुआ करती थी इसलिए जब चंबल मे कंमाडर साहब ने लालसेना खडी की तो लोग एक के बाद एक करके जुडना शुरू हो गये और एक समय वो आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल मे नजर आने लगा और उसने अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिये गये ।
कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया के बेटे सुधींद्र भदौरिया बताते है कि चंबल मे लालसेना के जन्म की कहानी भी बडी ही दिलचस्प है। उस समय हर कोई आजादी का बिगुल फूंकने मे जुटा हुआ था। उनके पिता भी आजादी के आंदोलन मे कूद पडे । उन्होने चंबल घाटी मे लालसेना का गठन करके लोगो को जोडना शुरू किया और छापामारी मुहिम जोरदारी के साथ शुरू की । इसकी प्रेरणा उनको चीन और रूस मे गठित लालसेना से मिली थी जो उस समय दोनो देशो मे बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था ।
उनका कहना है कि लालसेना के गठन के वक्त जो प्रण उनके पिता ने चंबल के विकास के लिए किया था वो उन्होने राजनैतिक पारी के साथ होने पर पूरा करने मे भी कोई हिचक नही दिखाई । उनको आज भी याद है कि चंबल नदी पर पुल का निर्माण नही था तब पीपे के पुल बना हुआ था । जब कभी भी चंबल के पार जाना होता था तब पीपे के पुल के ही माध्यम से जाना हुआ करता था ।
वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाल सेना का गठन किया, जिसने उत्तर प्रदेश के इटावा मे चंबल घाटी मे आजादी का बिगुल फूंकते हुए अग्रेजी राज के छक्के छुड़ा दिए । इस क्रांतिकारी संग्राम में पूरा इटावा झूम उठा तथा करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई ।
कमांडर ने आजादी की जंग पूरी ताकत, जोश, कुर्बानी के जज्बे में सराबोर हो कर लड़ी । उन्होंने बराबर क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की तथा ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया । इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया। अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ पैरों में बेड़िया डालकर रखा जाता था। अपने उसूलों के लिए लड़ते हुए वे तकरीबन 52 बार जेल गये।
आजादी की लड़ाई में अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत का बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को स्वतंत्रता सेनानियों ने कमांडर की उपाधि से नवाजा। कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया। तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होने हार नहीं मानी जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुन कर उन्हे सर आंखों पर बैठाया।
10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौेरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। 1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया । बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाको चने चबबा दिये । इसी के बाद उन्हें कमांडर कहा जाने लगा । 1957,1962 और 1977 में इटावा से लोकसभा के लिए चुने गए । कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया संसद में भी उनके बोलने का अंदाज बिल्कुल जुदा रहा। 1959 में रक्षा बजट पर सरकार के खिलाफ बोलने पर उन्हें संसद से बाहर उठाकर फेंक दिया गया । लोहिया ने उस वक्त उनका समर्थन किया । पूरे जीवनकाल में लोगों की आवाज उठाने के कारण 52 बार जेल भेजे गए ।
आपातकाल में उनकी पत्नी तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्रीमती सरला भदौरिया और पुत्र सुधींद्र भदौरिया अलग-अलग जेलो में रहे । पुलिस के खिलाफ इटावा के बकेवर कस्बे में 1970 के दशक में आंदोलन चलाया था । लोग उसे आज भी बकेवर कांड के नाम से जानते हैं ।
अर्जुन सिंह भदौरिया की एक खासियत यह भी रही है कि चाहे अग्रेंजी हुकूमत रही हो या फिर भारतीय कमांडर कभी झुके नहीं है । लोकतांत्रिक भारत में भी तीन बार सांसद के लिए चुने गए उनकी पत्नी भी राज्यसभा के चुनाव जीती ।
जनहित के बडे और अहम मुददे उठाने मे कंमाडर का कोई सानी नही रहा है ।
27 फरवरी 2016 को अर्से से उपेक्षित चंबल घाटी मे यात्री रेलगाडी की शुरूआत होते ही उस सपने को पर लग गये जो साल 1958 मे इटावा के सांसद कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने देखा था । 1957 मे पहली बार सांसद बनने के बाद चंबल मे कंमाडर के रूप से लोकप्रिय अर्जुन सिंह भदौरिया ने सदियो से उपेक्षा की शिकार चंबल घाटी मे विकास का पहिया चलाने के इरादे से रेल संचालन का खाका खींचते हुए 1958 मे तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने एक लंबा चौडा मांग पत्र इलाकाई लोगो के हित के मददेनजर रखा था जिस पर उनको रेल संचालन का भरोसा भी दिया गया था ।
कंमाडर 1957 के बाद 1962 और 1977 मे भी इटावा के सांसद निर्वाचित हुए लेकिन उनकी चंबल घाटी मे रेल संचालन की योजना को किसी भी स्तर पर शुरूआत नही हो सकी लेकिन कंमाडर के चंबल रेल संचालन की योजना को 1986 सिंधिया परिवार के चश्मोचिराग माधव राव सिंधिया ने पूरा करने का बीडा उठाते हुए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ रखा जिस पर तत्कालिक तौर पर अमल शुरू हो गया ।
कमांडर की ऐतिहासिक पुस्तक नीव के पत्थर के सहयोगी लेखक नरेश भदौरिया कहते है कि नीव के पत्थर के जरिये आजादी के आंदोलन के दरम्यान चंबल मे लाल सेना की गतिविधियो को संजोया गया है जो कि चंबल का ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसकी कोई दूसरी बानगी देखने को नही मिलेगी । नीव की पत्थर आज की पीढी लालसेना की ऐतिहासिकता को देख और समझ सकती है ।
वार्ता