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वर्तमान समय में गांधी की प्रासंगिकता
9 जनवरी 1915 को गाँधी (Mahatma Gandhi) जब अफ्रीका से वापस लौटकर अपने मादरे वतन की भूमि पर खड़े होते हैं, तो उनसे मिलने छोटा सा जनसमूह भी आता है। मैं उसे कतई ‘भीड़’ कह कर चिढ़ा नहीं सकता, क्योंकि उसमें से कुछ महानता के बीज भी थे, भले ही कुछ ज्याद उत्सुकता से ही
9 जनवरी 1915 को गाँधी (Mahatma Gandhi) जब अफ्रीका से वापस लौटकर अपने मादरे वतन की भूमि पर खड़े होते हैं, तो उनसे मिलने छोटा सा जनसमूह भी आता है। मैं उसे कतई ‘भीड़’ कह कर चिढ़ा नहीं सकता, क्योंकि उसमें से कुछ महानता के बीज भी थे, भले ही कुछ ज्याद उत्सुकता से ही आये हों!
एक विदेशी दंपत्ति ने अपने सहयात्री से पुछा “वहाँ क्या हो रहा है?” प्रत्युत्तर मिला “कोई गंवार इंडियन है जिसे अफ्रीका में गलती से व्यापारिक सफलता मिली है।” गाँधी जब कुछ समय बाद ‘चंपारण’ की ओर रुख़ करते हैं, तो उनका उद्यम किसी गर्भवती स्त्री की भांति नौ महिने तक महान भविष्य की संभावनाओं को अपने उदर में पालता है, उस प्रसव पीड़ा की वेदना को अपने ‘कर’ से बहार निकालता है। एक महान जवाबदेय लोकतंत्र के लिये ‘खूंटा’ गाढ़ता है।
कोई भी प्रयोजन रातों रात फलिभूत नहीं होता है उसके लिये सर्व समझ के हेतु सज्ज होना होता है, सुनियोजित ढंग स्वीकारना होता है, कर्म ही धर्म है, यह जानना होता है।
“आप जो करते हैं वह नगण्य होगा, लेकिन आपके लिए वह करना बहुत अहम है। हम जो करते हैं और हम जो कर सकते हैं, इसके बीच का अंतर दुनिया की ज्यादातर समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त होगा।”
__ महात्मा गाँधी
साम्राज्यवाद और गाँधी
“जीवन की मेरी योजना में साम्राज्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। वैयक्तिक आचरण और राजनीतिक आचरण में कोई विरोध नहीं है, सदाचार का नियम दोनों पर लागू होता है।
मेरे लिए देश प्रेम और मानव प्रेम में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। मैं देश प्रेमी हूं क्योंकि मैं मानव प्रेमी हूं, मेरा देश प्रेम वर्जनशील नहीं है, जिस तरह देश प्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए, और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए। इसी तरह किसी देश को स्वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्यकता होने पर संसार के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके । उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है मेरी कामना है कि हमारा राष्ट्रप्रेम ऐसा ही हो।
मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूं कि सारी दुनिया उससे लाभ उठा सके। मैं यह नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे देश की नाश की नींव पर हो। राष्ट्रवादी हुए बिना कोई अंतर-राष्ट्रीयवादी नहीं हो सकता । राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं है, बुराई तो उस संकुचित स्वार्थ वृत्ति और बहिष्कार वृत्ति में है जो मौजूदा राष्ट्र के मानस में जहर की तरह मिली हुई है ।
भगवान ने मुझे भारत में जन्म दिया है और इस तरह मेरा भाग्य इस देश की प्रजा के भाग्य के साथ बांध दिया है इसलिए यदि मैं उसकी सेवा न करुं, तो अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूंगा।
यदि मैं यह नहीं जानता कि उसकी सेवा कैसे की जाए तो मैं मानव जाति की सेवा करना सीख ही नहीं सकता। और यदि मेरे देश की सेवा करते हुए मैं दूसरे देशों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता तो मेरे पथभ्रष्ट होने की कोई संभावना नहीं है।”
——- महात्मा गाँधी
यंग इंडिया 18 जून 1929
गाँधी और इतिहास
गाँधी को उनके सदेह रहते हुए भी विदेशियों से ज्यादा अपनों के हमले झेलने पड़े। काले झंडे दिखायें गये। कोई मुसलमान का पैरोकार कह कर गरियाता तो कोई वैष्णव कह कर संदेह करता। कोई दलित का मसिहा मानता पर दूसरा उसी पर ऐतराज हुल्लड़ कर बैठता।
देश के टुकड़ों का जिम्मेदार भी गाँधी को कहने वाले हैं , मुसलमान देश में रुके रहें, तो इसमें भी गाँधी का षणयंत्र ही नजर आता है। जिस देश में अधिकांश युवा गाँधी को गरियाने में खुद को प्रगतिशील उद्धघोष करते हैं। वहाँ नेता कैसे होंगे सहज समझा जा सकता है! आप लाख असहमति जता लें , किंतु आप बिना गाँधी को छुए इतिहास की यात्रा नहीं कर सकते हैं।
अंतस में डूबकी लगाइये, चिंतन कीजिये। कौन भला ६२ साल की उम्र में ३२४ किमी पैदल यात्रा करता है! कितने नेताओं में गाँधी जितना धैर्य है ? जो ११ महिने चंपारण जैसे जगह पर खाक़ छान कर इतिहास परिवर्तन कर सकते हैं! आप कितने दिन आमरण अनशन कर सकते हैं! वो भी दूसरों के लिये! क्या आप दो संप्रदायों को दंगे के आग से बाहर निकाल कर उनके ह्रदय में प्रेम स्थापित कर सकते हैं! क्या आपको विश्वास है कि जब आपको नफ़रत की गोली मारी जायेगी, फिर भी मुख से निकलेगा “हे राम!” अहिंषा कमजोरी नहीं है, कर के देखिये।
रुजवेल्ट कहते थे कि “कुछ लोग महान पैदा होते हैं तो कुछ महान बनते हैं।” गाँधी दूसरे में से हैं। लोहियाजी ने तो तीन प्रकार का गाँधी वाद कहा है। बाकी आइंस्टीन ने तो पहिले ही कह रखा है।
वर्तमान में गाँधी
मैं वर्षों से पढ़ रहा हूं। दुनिया भर के दर्शन पढ़ता हूं, लेकिन जब भी जीवन की सहजता और सरलता ढूंढने की कोशिश करता हूं और उसे एक बड़े फलक तक परिवर्तनकारी आयाम तक ले जाने की बात सोचता हूं तो मुझे गाँधीजी ही सुकून दे पाते हैं ।
मेरी दादी जो अब इस दुनिया में नहीं है वह उस तारीख को याद करके भावुक हो जाती थी। जब गाँधी का कत्ल हुआ वो कहती- “मैंने अपने पूरे जीवन में आज तक किसी भी व्यक्ति को लोगों के बीच इतना स्वीकार्य नहीं देखा,ना ही पाया। शाम का वक्त था मेरी दादी गौने पर अपने मायके गई थी और रेडियो पे खबर आती है- गाँधी के ना रहने का। सारा परिवार शून्य हो जाता है। कई मिनट के बाद उन्हें यह होश आता है कि वह कहां है! उन्होंने क्या सुना ! लोग दहाड़े मार कर रो रहे थे।
बच्चे भी रोने में शामिल थे बजाय इसके यह मालूम होने के कि क्या हुआ है, जो अमीर परिवार थे उसने बकायदा पुतला जलाया, कामक्रिया किया। गरीब लोगों ने भी जैसी जिसकी शक्ति थी, उसने वैसा प्रयोजन और कर्म किया। लोग बकायदा नदी जोहड़, तालाबों में नहाने जाते थे। सारा सत्कर्म पूरा किया। देश हताहत था। ऐसा शायद ही हुआ हो किसी और के साथ।
गाँधी को याद करते हुए नेहरू
पंडित नेहरू का वह शब्द मैं दोहराता हूं- “हमारे जीवन का का दीपक बुझ गया।” कुछ लोग गांधी को गरियाते भी हैं, कुछ समझते भी हैं, दूसरों से उनकी तुलना भी करते हैं फिर भी गांधी को पढ़ा-लिखा जा रहा है।
“अहिंसा प्रचंड शस्त्र है उसमें परम पुरुषार्थ है वह भीरु से दूर-दूर भागती है। वह वीर पुरुष की शोभा है, उसका सर्वस्व है। यह नीरस, जड़ पदार्थ नहीं है। यह चेतनमय है । यह आत्मा का विशेष गुण है इसीलिए इसका वर्णन परम धर्म के रूप में किया गया है।”
— महात्मा गाँधी , नवजीवन, 13/09/1928
गाँधी कहते हैं — “मृत्यु तथा दुख भोग कर भी दूसरे को सुख देना ही अहिंसा है।”
किंतु विश्व बंधुत्व एवं सर्वत्र शांति का सात्विक संदेश देने वालों! गांधी मात्र पूजने की मूरत नहीं हैं। चिंतन करते हुए मस्त रहिए, मुक्त रहिए, जय हिंद, जय भारत, वंदेमातरम्-