तो क्या पुलिस को नहीं है न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा
मुझसे लाइटर लेकर जला दो कानून के पन्नों को और अदालतों को बंद करके उनकी जगह खोल दो धर्मशाला…क्योंकि जब नियम ही बन गया है कि ‘पकड़ो और मारो’ ओह सॉरी ‘कस्टडी में ले जाते वक़्त मारो’ तो फिर ज़रूरत क्या है कानून की किताबों का बोझ बढ़ाने और अदालतों की मरम्मत का खर्चा उठाने
मुझसे लाइटर लेकर जला दो कानून के पन्नों को और अदालतों को बंद करके उनकी जगह खोल दो धर्मशाला…क्योंकि जब नियम ही बन गया है कि ‘पकड़ो और मारो’ ओह सॉरी ‘कस्टडी में ले जाते वक़्त मारो’ तो फिर ज़रूरत क्या है कानून की किताबों का बोझ बढ़ाने और अदालतों की मरम्मत का खर्चा उठाने की….!
भावनाओं के चौराहे से निकलकर अब आते हैं तथ्यों और सवालों के हाईवे पर…तो बता दूं कि सुबह से 3 बार हाजमे की 6 टेबलेट खा चुका हूँ फिर भी विकास दुबे के एनकाउंटर की कथित परिस्तिथियाँ हज़म नहीं हो रहीं….
पहला कड़क सवाल तो खुद से ही मैं पूछ रहा कि आखिर विकास की ही गाड़ी क्यों पलटी? चलो मान लिया कि पलटी आखिर बेचारी गाड़ी को क्या पता कौन विकास कहां का दुबे…
अब दूसरा सवाल ये कि एनकाउंटर वाली जगह से काफी पहले मीडिया को क्यों रोक दिया गया? क्या मीडिया गाड़ी को पलटता देखकर डर जाती या मीडिया को देखकर गाड़ी पलटना भूल जाती?
तीसरा प्रश्न ये कि क्या पलटी हुई गाड़ी से निकलकर एक लंगड़े आदमी के लिए भागना इतना आसान था वो भी तब जब कई STF के जवान उसके साथ गाड़ी में थे?
चौथा सवाल कि अगर विकास दुबे भाग रहा था तो गोली सीने में कैसे लगी क्योंकि जितना ज्ञान मुझे है भागते वक़्त आदमी की पीठ पर गोली लगनी चाहिए? अब सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस अपराधी ने खुद महाकाल मंदिर में जाकर पुलिस के पीछे सरेंडर का नाटक करके पुलिस के सामने आया उसे पुलिस से ही भागने की क्या ज़रूरत पड़ गयी?
अगर पुलिस से भागना ही था तो खुद ही पुलिस के सामने क्यों आता? कुल मिलाकर सवालों का अंबार है पुलिस की मस्त फ़िल्म वाली पटकथा पर…और पुलिस के पास जवाब देने को वही पुरानी रटी हुई स्क्रिप्ट! अब तलाशते रहिए जवाब गुमनाम टूटी सड़क पर क्योंकि जवाब देने के लिए कोई भी टेंडर लेने वाला नहीं!
- Avneesh Mishra, India Tv