सोचिए, अगर घर में आग लगी हो और हम धुएं को खिड़की से बाहर निकालने की मशीन खरीद लें, पर आग बुझाने की कोशिश ही न करें, तो क्या घर बचेगा? यही हाल है कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (CCS) तकनीक का, जिस पर अब एशिया की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ दांव लगाने की सोच रही हैं।
क्या होता है CCS?
CCS यानी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज। मतलब-बिजलीघर, फैक्ट्री या किसी भी बड़े प्लांट से निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) के धुएँ को कैद कर लो, हवा में जाने से रोक लो, और ज़मीन के नीचे दबा दो।
ये सुनने में आसान है, लेकिन अभी तक ये टेक्नोलॉजी बड़े पैमाने पर सफल नहीं हुई। सरल भाषा में CCS वैसा है जैसे घर में धुआं भर रहा हो, और हम खिड़कियों पर मोटा परदा डाल दें कि धुआं बाहर न जाए, लेकिन आग बुझाने की कोशिश न करें।
यानी असली समस्या-फॉसिल फ्यूल जलाना-को रोकने की बजाय, उसका धुआं छुपाने की कोशिश।
नया अध्ययन, बड़ी चेतावनी
ग्लोबल रिसर्च संगठन क्लाइमेट एनालिटिक्स की नई रिपोर्ट कहती है कि अगर चीन, भारत, जापान, कोरिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश पूरी तरह CCS को अपनाते हैं, तो 2050 तक अतिरिक्त 25 अरब टन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन हो सकता है। ये न सिर्फ पेरिस समझौते को पटरी से उतार देगा, बल्कि इनकी अपनी अर्थव्यवस्थाओं को भी भारी नुकसान पहुंचा सकता है।
तकनीक पर शक, लेकिन प्रचार तेज़
तेल और गैस कंपनियाँ CCS को जलवायु संकट का हल बताती हैं। लेकिन हकीकत ये है कि ये तकनीक आज तक बड़े पैमाने पर सफल साबित नहीं हुई।
- कैप्चर रेट कम है।
- खर्चा बहुत ज़्यादा है।
- और बिजली पैदा करने की लागत रिन्यूबल ऊर्जा से दोगुनी तक बैठती है।
मतलब साफ़ है-जहाँ सोलर और विंड स्टोरेज के साथ सस्ता और टिकाऊ हल दे रहे हैं, वहाँ CCS एक महँगा और असफल प्रयोग बनकर रह गया है।
किसका क्या दांव?
रिपोर्ट में बताया गया है कि:
- जापान और कोरिया अपने यहाँ और बाहर, दोनों जगह CCS को बढ़ावा दे रहे हैं ताकि इस टेक्नोलॉजी के बाज़ार में आगे रह सकें।
- ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देश खुद को कार्बन स्टोरेज और ट्रांजिट हब बनाने की कोशिश में हैं-असल में तेल-गैस की कमाई बचाने के लिए।
- चीन और भारत अभी साफ़ योजना नहीं दिखा रहे, लेकिन अगर ये CCS की राह पकड़ते हैं तो बड़ा झटका लग सकता है, क्योंकि इनके लिए रिन्यूबल विकल्प कहीं सस्ते और सुरक्षित हैं।
“बहुत बड़ा जोखिम”
रिपोर्ट के लेखक जेम्स बोवेन कहते हैं – “अगर एशियाई देश 2050 तक CCS पर टिके रहते हैं तो ये न सिर्फ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता बढ़ाएगा, बल्कि पेरिस समझौते का 1.5°C लक्ष्य भी हाथ से निकल जाएगा।”
क्लाइमेट एनालिटिक्स के CEO बिल हेयर का कहना है-“ये रणनीति बहुत जोखिम भरी है। न सिर्फ जलवायु के लिए बल्कि उन अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी जो CCS को अपनाकर फंस सकती हैं।”
साफ़ विकल्प मौजूद हैं
कठिन उद्योगों के लिए भी वैकल्पिक रास्ते मौजूद हैं-विद्युतीकरण, ग्रीन हाइड्रोजन और सर्कुलर सॉल्यूशंस। इनसे उत्सर्जन घट सकता है बिना किसी महँगे और अधूरे CCS प्रयोग के।
सीधी बात
एशिया एक चौराहे पर खड़ा है। एक तरफ रिन्यूबल ऊर्जा है-सस्ती, भरोसेमंद और भविष्य की गारंटी देने वाली। दूसरी तरफ CCS है-महँगा जाल, जो असल में जीवाश्म ईंधन कंपनियों को और ज़्यादा वक्त दिलाने का बहाना है। अगर एशिया गलत राह पकड़ लेता है, तो न सिर्फ धरती गर्म होगी, बल्कि इन देशों की अपनी जेब और भविष्य भी जलेंगे।