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News Kranti > TOP NEWS > धार्मिक समाज सुधारकों की परंपरा को बचाने की लड़ाई –    एड. संजय पांडे
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धार्मिक समाज सुधारकों की परंपरा को बचाने की लड़ाई –    एड. संजय पांडे

केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के नारायण गुरु पर दिए गए बयान से उत्पन्न विवाद पर प्रकाशनार्थ लेख

Saurabh
Saurabh
4 months ago
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शिवगिरी मठ सभी दलों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखता है। वार्षिक शिवगिरी यात्रा के दौरान राजनीतिक दलों के नेताओं को यात्रियों को संबोधित करने का अवसर दिया जाता है। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने यात्रियों को संबोधित किया है। इस वर्ष शिवगिरी मठ के कार्यक्रम में विजयन को आमंत्रित किया गया था।

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केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने 31 दिसंबर 2024 को वर्कला स्थित श्री नारायण गुरु की समाधि स्थल पर 92वें शिवगिरी तीर्थक्षेत्र के उद्घाटन समारोह में भाग लिया। वर्कला में नारायण गुरु की समाधि पर शिवगिरी यात्रा के संदर्भ में आयोजित एक सभा में विजयन ने कहा, “गुरु को सनातन धर्म का प्रतीक दर्शाने के लिए संगठित प्रयास किए जा रहे हैं। गुरु कभी भी सनातन धर्म के प्रचारक या अनुयायी नहीं थे। बल्कि, वे उस समय के नए युग के लिए सनातन धर्म का पुनर्निर्माण करने का प्रयास कर रहे थे।” उन्होंने आगे कहा, “सनातन धर्म का सार उसकी वर्णाश्रम व्यवस्था में है, जिसका गुरु ने स्पष्ट रूप से विरोध किया। गुरु जातिवाद के खिलाफ खड़े होने वाले व्यक्ति थे। उनका नया धर्म, धर्म के नियमों से परिभाषित नहीं था, बल्कि वह लोगों की भलाई के लिए बनाई गई प्रणाली पर आधारित था। धर्म के मामले में वे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे।गुरु को सनातन धर्म की सीमाओं में बांधना उनके खिलाफ पाप होगा।”

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विजयन ने कहा, “श्री नारायण गुरु को सनातन धर्म के समर्थक के रूप में नहीं देखा जा सकता। ‘एक जाति, एक धर्म, और लोगों के लिए एक ईश्वर’ का संदेश देने वाले गुरु कभी भी सनातन धर्म के प्रवक्ता या समर्थक नहीं थे। गुरु ने समाज में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अगर आप उनका इतिहास देखेंगे, तो पाएंगे कि सनातन धर्म वर्णाश्रम व्यवस्था का पर्याय है, जो चार वर्णों की व्यवस्था और वंशानुगत व्यवसायों पर आधारित है। यह वंशानुगत व्यवसायों का महिमामंडन करता है। लेकिन श्री नारायण गुरु ने क्या किया? उन्होंने वंशानुगत व्यवसायों को त्यागने का आह्वान किया। तो गुरु सनातन धर्म के समर्थक कैसे हो सकते हैं?”  इस तरह विजयन ने अपने भाषण में समाज सुधारक श्री नारायण गुरु को सनातन धर्म के दायरे में लाने के प्रयास की निंदा की। उन्होंने कहा कि “सनातन धर्म समाज में जातीय विभाजन के आधार पर बनी वर्णाश्रम व्यवस्था के समान है। श्री नारायण गुरु को सनातन धर्म के समर्थक के रूप में प्रचारित करने का प्रयास उनके जातिवाद के खिलाफ किए गए कार्यों और मानवतावादी संदेश के विपरीत है”।

उन्होंने कहा, “आज जब दुनिया धर्म आधारित हिंसा की परिभाषाओं से जूझ रही है, ऐसे समय में श्री नारायण गुरु के विचार अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं। गुरु जिन चीजों के खिलाफ लड़े, उन्हें उन्हीं का समर्थक दिखाने का प्रयास नाकाम किया जाना चाहिए। गुरु को केवल एक धार्मिक नेता या संत के रूप में प्रचारित करने का विरोध होना चाहिए। गुरु का कोई धर्म या जाति नहीं थी।” विजयन ने कहा कि इस सम्माननीय सामाजिक सुधारक को सनातन धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि गुरु की शिक्षाएं और कार्य समाज में समानता स्थापित करने और जातीय भेदभाव का विरोध करने के लिए थे, जो सनातन धर्म के सिद्धांतों से मेल नहीं खाते। आगे विजयन ने कहा, “सनातन धर्म, जो सत्ताधारी विचारधारा है, उसके कारण उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में दलित, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं।” उनके इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए भारतीय जनता पार्टी के पूर्व केंद्रीय मंत्री वी. मुरलीधरन ने केरल के मुख्यमंत्री पर तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन की तरह ही सनातन धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया।

19वीं सदी के केरल में जाति-प्रथा अत्यंत कठोर और शोषणकारी थी। हिंदू समाज विभिन्न जातीय समूहों में विभाजित था, जहां ब्राह्मण समाज उच्च स्थान पर था, जबकि निम्न जातियों को भयंकर भेदभाव का सामना करना पड़ता था। ईझावा समाज जैसे जातीय समूहों को शिक्षा, मंदिर प्रवेश और सार्वजनिक स्थानों पर जाने का अधिकार नहीं दिया जाता था। ये लोग गहरी गरीबी और अपमानजनक परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करते थे। इसी दमनकारी वातावरण में, श्री नारायण गुरु का जन्म 1855 में केरल के चेम्पाझंथी नामक छोटे गांव में एक ईझावा परिवार में हुआ।

बचपन से ही उनकी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक झुकाव अद्वितीय थे। उन्होंने अपने समाज के लिए वर्जित मानी जाने वाली संस्कृत और हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया। उनका मानना था कि देवत्व सभी मनुष्यों में समान है, यह जाति और धर्म पर निर्भर नहीं करता। उन्होंने जातीय भेदभाव को चुनौती दी। श्री नारायण गुरु ने 1888 में अरुविप्पुरम नदी के किनारे शिवलिंग की स्थापना कर ब्राह्मणों के वर्चस्व को खुली चुनौती दी, क्योंकि उस समय मंदिर स्थापित करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों तक सीमित था। इस अनुष्ठान को स्वयं करके उन्होंने यह संदेश दिया कि आध्यात्मिकता सभी के लिए है और यह किसी भी जाति तक सीमित नहीं हो सकती। जब गैर-ब्राह्मणों द्वारा किए गए इस अनुष्ठान का विभिन्न स्तरों पर विरोध हुआ, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि यह मूर्ति “ब्राह्मणों के शिव की नहीं, बल्कि ईझावा के शिव की” थी और ईझावा समाज को पीड़ित जाति के रूप में संबोधित किया।

इसके बाद, उन्होंने पूरे केरल में कई मंदिर स्थापित किए। ये मंदिर केवल पूजा के स्थान नहीं थे, बल्कि शिक्षा और सामाजिक सुधार के केंद्र भी बने। उनका प्रसिद्ध नारा “एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर” बना, जिसने जातिवादी विभाजन को स्पष्ट रूप से खारिज किया। उनका मानना था कि देवत्व सभी मनुष्यों में समान है और यह जाति या धर्म पर निर्भर नहीं करता। उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता से पीड़ित समाज को प्रगतिशील दिशा में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1888 में, जब मंदिर प्रवेश और समानता के आंदोलनों की शुरुआत भी नहीं हुई थी, उन्होंने पीड़ित जातियों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिलाया।

श्री नारायण गुरु ने शिक्षा को मुक्ति का एक प्रभावी साधन माना। उन्होंने स्कूलों की स्थापना की और जाति भेदभाव को खारिज करते हुए सभी को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इस पहल से कमजोर वर्गों को आर्थिक और सामाजिक प्रगति के अवसर मिले। उन्होंने मंदिरों के माध्यम से पुस्तकालय और वाचनालय बनाए, जिससे सभी को ज्ञान की पहुंच मिली। इस प्रयास ने शिक्षा का लोकतंत्रीकरण किया और समाज में एकता और सामूहिक भावना को बढ़ावा दिया।

श्री नारायण गुरु ने अस्पृश्यता और जाति आधारित बंधनों के खिलाफ सक्रिय रूप से अभियान चलाया। उन्होंने शोषित वर्गों में आत्मसम्मान और गरिमा की भावना जागृत की। उन्होंने लोगों को कमतर होने की भावना को छोड़कर अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर लड़ने के लिए प्रेरित किया। जाति प्रथा को खत्म करने के लिए उन्होंने अंतरजातीय भोजन कार्यक्रमों को समर्थन दिया, जो उस समय निषिद्ध था। गुरु ने समाज में व्याप्त कट्टरता की दीवारों को गिराने के लिए अथक प्रयास किए और एक ऐसे समाज का निर्माण का प्रयास किया जो समानता, शिक्षा और एकता पर आधारित हो।

श्री नारायण गुरु केवल एक समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि एक महान दार्शनिक और कवि भी थे। उनके लेखन के माध्यम से करुणा, समानता और न्याय जैसे सार्वभौमिक मूल्यों का प्रचार हुआ। उनकी रचनाएँ, जैसे “आत्मोपदेश सतक” (आत्म-शिक्षा के लिए सौ छंद) और “दैव दशकम” (ईश्वर के लिए दस श्लोक), जातीय भेदभाव के खिलाफ उनके संदेश को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती हैं। गुरु का दर्शन समावेशी था। उन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को अपनाया और उसे उस समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप प्रस्तुत किया। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि सभी मनुष्य एक ही सार्वभौमिक तत्त्व पर आधारित हैं और उन्होंने समाज सुधार के लिए एक आध्यात्मिक आधार तैयार किया। केरल में अध्यात्म को सामाजिक सुधार से जोड़ने के उनके प्रयास को अद्वैत वेदांत के रूप में जाना जाता है। अद्वैत का अर्थ है “एक अंतिम सत्य” या “ब्रह्म,” जो एकमात्र और अपरिवर्तनीय है। व्यक्तिगत आत्मा (आत्मा) इस सार्वभौमिक तत्त्व के साथ एकरूप है। उनके अनुसार, अज्ञान ही द्वैत (विभाजन) की भ्रांति उत्पन्न करता है, जिससे जाति, धर्म और अन्य पहचानों के आधार पर समाज में विभाजन होता है। उनका एक साधा लेकिन क्रांतिकारी नारा था, “एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर मानव के लिए।” उन्होंने सभी जातियों के लिए मंदिरों को खोलने का समर्थन किया और यह सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किए कि पूजा का अधिकार कुछ विशिष्ट लोगों तक सीमित न हो।

उनके प्रयासों ने न केवल केरल, बल्कि पूरे भारत में सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत और इझावा समाज तथा अन्य शोषित वर्गों को मुख्यधारा में शामिल होने का आत्मविश्वास दिया। उनके विचारों ने आगे चलकर सामाजिक न्याय और समानता के आंदोलनों को प्रेरणा दी। पेरियार की तरह वह कट्टर नास्तिक नहीं थे। उन्होंने सनातन धर्म का पूरी तरह से विरोध नहीं किया, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ रहे कि पूजा का अधिकार सभी के लिए समान हो और शोषित वर्गों को भी इसमें भाग लेने का अवसर मिले। वे मानते थे कि आध्यात्मिकता का मार्ग सभी के लिए समान होना चाहिए और ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त किया जाना चाहिए। श्री नारायण गुरु ने अपने कार्यों से करुणा, समानता और न्याय का दर्शन न केवल अपने लेखन में, बल्कि अपने प्रयासों में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में बदलाव लाने का काम किया, जो आज भी समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

अत्याचारग्रस्त जातियों की शैक्षणिक और सामाजिक प्रगति के लिए, श्री नारायण गुरु ने 1903 में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम (एसएनडीपी योगम) की स्थापना की। शिवगिरी आश्रम की स्थापना करने वाले श्री नारायण गुरु को केरल के अग्रणी समाज सुधारकों में से एक माना जाता है। लेकिन जब उन्होंने देखा कि व्यापक दृष्टिकोण से काम करने के बजाय, श्री नारायण धर्म परिपालन योगम केवल इझावा जाति-समाज के लोगों का वर्चस्व रखने वाला संगठन बनता जा रहा है, तो वे निराश हो गए। लगभग एक दशक बाद, उन्होंने स्वयं को एसएनडीपी योगम से अलग कर लिया। गुरु द्वारा स्थापित और उनका समाधिस्थल शिवगिरी, अब इझावा समाज का प्रमुख तीर्थक्षेत्र बन चुका है।

श्री नारायण गुरु आधुनिक दक्षिण भारत के एक महान सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने भारतीय समाज में गहराई तक फैली जातीय व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया। एक आध्यात्मिक गुरु, दार्शनिक और दूरदर्शी नेता के रूप में, श्री नारायण गुरु विशेष रूप से केरल के समाज के कमजोर वर्गों के लिए आशा की किरण बने। उनके कार्यों ने उनके क्षेत्र में सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत की। उनका प्रभाव केवल निचली जातियों तक सीमित नहीं रहा; कई प्रबुद्ध विचारकों और उच्चवर्णीय नेताओं ने भी उनके दर्शन को समझा और उसे स्वीकार कर सामाजिक बदलाव के लिए अपनाया। महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान नेताओं पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा। गांधीजी ने उनसे मिलने के बाद उन्हें “पूर्ण पुरुष” और भारत की आध्यात्मिक परंपरा का सच्चा प्रतिनिधि कहा। उनकी धार्मिक सुधारवादी आंदोलन ने वामपंथी आंदोलन को एक प्रगतिशील आधार प्रदान किया।

केरल की 23% आबादी वाले इझावा समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह समुदाय आम तौर पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाले एलडीएफ का पारंपरिक मतदाता माना जाता है, हालांकि कुछ वोट यूडीएफ को भी जाते हैं। इस समुदाय में धार्मिक मान्यताओं को स्वीकार करने वाले लोग हैं, लेकिन वे कर्मकांड, जातिवाद और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध करते हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि जब श्री नारायण धर्म परिपालन योगम ने राम मंदिर के अभिषेक का स्वागत किया, तो शिवगिरी मठ के अध्यक्ष स्वामी सच्चितानंद ने अयोध्या के अभिषेक समारोह से दूर रहने का निर्णय लिया।

अब तक, मठ के नेतृत्व ने प्रमुख मंदिरों में पुजारी पदों पर “ब्राह्मणवादी वर्चस्व” का विरोध करने के लिए अपनी प्रभावशाली स्थिति का उपयोग किया है। उन्होंने बड़े मंदिरों में पुजारी पद केवल ब्राह्मण समाज तक सीमित रखने की प्रथा की आलोचना की है। स्वामी सच्चितानंद ने एक कार्यक्रम में कहा, “मंदिर में प्रवेश करने से पहले पुरुषों को अपनी शर्ट उतारने के लिए मजबूर करने की ‘गलत’ प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए। पहले के समय में यह प्रथा ऊंची जाति के लोगों के जनेऊ (पुनूल) पहनने की पुष्टि के लिए बनाई गई थी। यह प्रथा आज भी मंदिरों में जारी है। श्री नारायण सोसायटी इस प्रथा को बदलना चाहती है।” पिनराई विजयन ने स्वामी सच्चितानंद के इस मत का समर्थन करते हुए कहा कि यह नारायण गुरु की परंपरा के अनुरूप होगा और इससे सामाजिक बदलाव आएगा।

भक्तिसंप्रदाय और धार्मिक समाज सुधारकों ने विभिन्न कालों में हिंदू धर्म की रीतियों, अंधविश्वासों, ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और जातिवाद की अपने-अपने तरीकों से आलोचना की। उन्होंने अपने-अपने समर्थक, भक्त और संप्रदाय बनाए। इन सुधारकों ने जो भी लिखा या कहा, उससे तत्कालीन धार्मिक पीठाधीशों की स्थिति को चुनौती मिली, जिसके कारण उन्हें विरोध भी सहना पड़ा। लेकिन आज, धर्म के बारे में कुछ भी कहने पर विवाद खड़ा करके राजनीतिक लाभ उठाने का आरएसएस का फॉर्म्युला सफल हो रहा है। इस तरीके से, भाजपा को छोड़कर अन्य सभी दलों को सनातन-हिंदू विरोधी और मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले के रूप में बदनाम किया जाता है।

प्रत्येक समाज में संगठनों, जयंती पुण्यतिथी समारोहों, मंदिरों और पीठों पर कब्जा करके धार्मिक मतों का ध्रुवीकरण किया जाता है। ब्राह्मणवाद और जातिवाद पर सीधी बात करने वाले कम्युनिस्टों को धर्म-विरोधी, सत्ता-विरोधी और हिंदू-विरोधी बताने का प्रचार किया जा रहा है। केरल में भाजपा धार्मिक संगठनों, संस्थाओं और धर्मगुरुओं को अपने प्रभाव में लाने का प्रयास कर रही है। मठ में विश्वास रखने वाले समाज का एक वर्ग हिंदुत्व की ओर झुक रहा है। संघ और भाजपा ने कई समाज सुधारकों को इसी प्रकार अपने एजेंडे में शामिल कर लिया है। भाजपा इझावा समाज में अपना आधार बनाने के लिए सक्रिय प्रयास कर रही है। वर्तमान में भाजपा को उच्च जाति के हिंदू मतदाताओं का बड़ा समर्थन प्राप्त है। इझावा समुदाय की मुख्य संगठन, श्री नारायण धर्म परिपालन योगम, का केरल की राजनीति में महत्वपूर्ण प्रभाव है। पिनराई विजयन द्वारा श्री नारायण गुरु के संदर्भ में दिए गए बयान का भाजपा सीपीएम को लक्षित करने और धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए उपयोग कर रही है।

हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में एलडीएफ को कई जगह पर पराजय का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा ने वामपंथी गढ़ में विजय प्राप्त की। श्री नारायण धर्म परिपालन योगम के अध्यक्ष वेल्लापल्ली नटेसन ने सत्ताधारी सरकारों का समर्थन किया है, लेकिन उनके बेटे तुषार वेलप्पल्ली, जो एसएनडीपी की राजनीतिक शाखा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, भाजपा का समर्थन करते हैं। एसएनडीपी योगम में भाजपा समर्थकों की बढ़ती संख्या माकपा के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। भाजपा इस मुद्दे को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। नायर सेवा सोसाइटी (उच्च जाति की संघटन) के साथ भाजपा ने विजयन पर आलोचना शुरू की है। आलोचना के मुद्दे वही पुराने हैं कि “परंपराओं में बदलाव क्यों किया जा रहा है? अन्य धर्मों की परंपराओं पर आलोचना क्यों नहीं की जाती? परंपराओं को ‘दुष्ट’ कहने का उन्हें क्या अधिकार है?”

आरएसएस और भाजपा केरल में प्रवेश करने के लिए और चुनावी रणनीति के तहत इझावा समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में है। प्रगतिशील समाज सुधारकों को मानने वालों को आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। समाज के राजनीतिक महत्व को समझते हुए शिवगिरी मठ ने अपनी स्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं की है। राजनीतिक लाभ, धार्मिक विरोधाभास, आर्थिक समर्थन की आवश्यकता और सुविधाओं की मांग वगैरे मठ की अस्पष्ट भूमिका के पीछे मुख्य कारण हो सकता है । अगर ऐसा है तो यह स्थिति चिंताजनक है।

लेखक : संजय पांडे

लेखक पेशे से वकील है। प्रकाशक न्यूजकांति डॉट कॉम लेखक के विचारों से सहमति अथवा असहमति प्रकट नहीं करता है।

VIA:लेखक : संजय पांडे
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