कृषि कानून : ‘गले की फांस’ बन सकता है एमएसपी

कृषि से संबंधित दो अध्यादेशों को गुरुवार के दिन 5 घंटे चली लंबी बहस के बाद इसे पारित कर दिया गया है. कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य, सवर्धन और विधेक-2020 और किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020 अब लागू हो चुका है l इस बिल के पारित होते ही इसके साथ कुछ विवाद खड़े हो गयें है l

कानूनी तौर पर यह बिल बिलकुल सही तरह से पारित किया गया है l भारत में “संघीयता” संविधान का अभिन्न अंग है , यह सरवोच्च न्यायालय ने एस. आर. बोमइ बनाम युनियन आफ इंडिया, 1994 में स्पष्ट कर दिया था l तो अगर कानूनी बात करे तो यह बिल दो तरह से रोका जा सकता है पहला, कि ये मूल अधिकारों का हनन कर रहा हो l दूसरा कि ये संविधान के सातवें सेड्यूल में “स्टेट लिस्ट”में आता हो l यह दोनों बिंदुओं को माननीय सरवोच्च न्यायालय युनियन आफ इंडिया बनाम एच. एस. ढिल्लन,1972 में स्पष्ट कर चुका हैl

अब इस बिल के द्वारा जो संशोधन किए गए हैं उसमें सरकार का उद्देश्य किसानों को सीधा बडे़ उद्योगों के साथ अनुबंध करे l इसमें बिचौलियों के द्वारा जो कमाई की जा रही थी उसे खत्म किया गया हैl

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पहले तो “एम एस पी ” (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) जिसके तहत यह तय होता है कि किसान अपनी फसल को कम से कम “एम एस पी ” पे बेचेगाl आप को बता दे कि किसान अगर मान लीजिए अनुबंध कर लेता है बड़े उद्योगों के साथ तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि यह दाम “एम एस पी” के बराबर या उससे ज़्यादा होगा क्यूँकि कानून इस बारे में कुछ नहीं कहता l इस कानून में यह सबसे बड़ी कमी है और इसके परिणामस्वरूप उद्योग व्यापारी मन चाहा पैसा लेंगेl
दूसरी समस्या यह है कि खेती कि खरीद में निजीकरण इतना हावी हो जाएगा कि जैसे खाद का निजीकरण होने पर सरकार को लगा था दाम घटेगे मगर परिणामस्वरूप किसानों का शोषण हुआ था वैसा ही इसमें भी हो सकता हैl

सरकार को इन समस्याओं को देखते हुए “एम एस पी” पे एक कानून लाना चाहिए जिससे कि यथास्थिति जिसमें “एम एस पी” एक पालिसी बना हुआ है, उसको बदल कर कानून के तौर पर लागू किया जा सके

विश्लेषक- उज्ज्वल तिवारी (Law Student)

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