गांवो में सरकारी शिक्षा बेहद स्तरहीन होती जा रही है। एक तो चोरी की डिग्री पर नियोजित किए गए शिक्षक हैं जिन्हें खुद कुछ नहीं आता है। इन शिक्षकों को राज्यों तक के नाम नहीं मालूम होते हैं। जो पढ़े लिखे शिक्षक हैं वो लापरवाह है। जैसे ये विद्यालय सिर्फ़ इसलिए आते हैं ताकि यहां समय काट सकें। ये शिक्षक विद्यालय में पढ़ाने के वक़्त पान की दुकान पर पान खाते दिखते हैं। इस बात से आप समझ सकते हैं कि गांवो में सरकारी शिक्षा की क्या दुर्गति है।
शिक्षकों के अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है वो ये है कि अब गांवो में शिक्षा सरकारों के लोकलुभावन योजनाओं के कारण सिर्फ़ योजनाओं से लाभ लेने भर तक ही सीमित रह गई है। धनी और मध्यम वर्ग के बच्चे गांव से बाहर शहर के स्कूल में पढ़ते हैं। बस अब गांवो से बच्चे उठा ले जाती है। ऐसे बच्चों का दो जगहों पर नाम होता है। एक शहर के स्कूल में तो दूसरा गांव के सरकारी विद्यालय में। गांव के विद्यालय में ये इसलिए नाम बना रहने देते हैं ताकि सरकारी योजनाओं का लाभ लेते रहें।
मिड डे मील योजना के कारण गांवो के सरकारी विद्यालयों में भारी लूट चलती है। और लूट का हिस्सा विद्यालय के सभी शिक्षकों में समान रूप से होता है ताकि विद्रोह न हो। इस सब लूट में विद्यालय के प्रधानाचार्य की भूमिका सबसे संदिग्ध होती है।
मिड डे मील योजना के कारण पिछड़े दलित अपने बच्चों को इस विद्यालय में भेजते हैं इसलिए ताकि ज्ञान मिले या ना मिले कम से कम भात ज़रूर मिलेगा और ये शिक्षक यहां भी धांधली करते हैं।
विद्यालय में दो तरह का भोजन बनता है। एक पिछड़े और दलित छात्रों के लिए और एक शिक्षकों के लिए। छात्रों के लिए कोई कम दाम वाले चावल और शिक्षकों के लिए लंबे लंबे खुशबूदार चावल। ये एक किस्म का अन्याय है। शिक्षा का बंटाधार करते ऐसे शिक्षक निश्चित रूप से ही दंड के भागीदार हैं |
दीपक सिंह