कोरोना महामारी संकट के इस दौर में जहां एक ओर बड़ी तादाद में मजदूरों को अपने अपने घर वापस लौटना पड़ रहा है. वहीँ दूसरी ओर कई लोगों के रोजगार पर भी संकट आ गया है. अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े लोग अपने अपने स्तर पर ज़रूरतमंदों की मदद करते नज़र आ रहे हैं. मशहूर गीतकार, कवि, निर्देशक हर दिल अज़ीज़ गुलज़ार ने भी अपनी नई कविता के माध्यम से घर वापसी कर रहे मजदूरों का दर्द उकेरा है.
गुलज़ार ने इस कविता में मजदूरों की गाँव से जुडी जड़ें और रोजगार की तलाश में उनके शहर जाने की मजबूरियों को बयान किया है. कैसे शहर में रहते हुए भी मजदूर गाँव की यादों से जुड़े रहते हैं और मुसीबत के समय अपनी जड़ें ही याद आती हैं. तो आइये पढ़ते हैं गुलज़ार की यह खूबसूरत नज़्म-
“महामारी लगी थी
घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर.
मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी
उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे
वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आए थे
वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़
कटाई और बुआई सब वहीं तो थी
ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब.
वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से
फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े
लठैत अपने, कभी उनके. वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे.
सगाई, शादियाँ, खलियान,
सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे. मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है.
यहाँ तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !
निकालें प्लग सभी ने,
‘ चलो अब घर चलें ‘ – और चल दिये सब,
मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !”