नेपोटिज्म ! अपने सगे संबंधियों को तरजीह देना। प्रतिभाशाली अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के पश्चात ये शब्द सोशल मार्केट में ख़ूब बिक रहा है। सब अपनी अपनी तरह की बातें बना रहे हैं। कोई कारण जौहर को कोस रहा है, तो कोई यशराज फिल्म्स को।
मोटा मोटी सभी वर्ग के लोग नाराज़ हैं, उनकी ये नाराज़गी यक़ीनन सुशांत के साथ उनके प्रेम को दर्शाती है। सुशांत एक लोकप्रिय धारावाहिक के मुख्य किरदार थे। “पवित्र रिश्ता” से इनकी पहचान घर घर थी। दादी चाची को अक्सर मानव कहते ही सुना था। मुझे यकीन है सुशांत की खबर सुनकर मेरी चाची दादी को मानव कहकर ही याद दिला रही होगी!
सुशांत मेहनत करते गए। आगे बढ़ते गए। उनकी सफलता नई इबारत लिख रही थी। मिडिल क्लास के लड़के ने एक ख़्वाब देखा, ख़्वाब पूरा हुआ। सुशांत, शाहरुख़ को अपना आदर्श मानता था। शाहरुख़ और सुशांत में काफ़ी समानताएं भी थी। दोनों टीवी से आए अभिनेता हैं।
दोनों का दिल्ली कनेक्शन भी सुशांत को प्रभावित करता था। सुशांत के सपने बड़े थे। होने भी चाहिए। वो भविष्य में बड़ा मुकाम चाहता था, शाहरुख़ की तरह। अफ़सोस, कि बड़ा मुकाम पाने का ख़्वाब उसका पूरा नहीं हुआ! उसने आत्महत्या कर ली।
फ़िल्म इंडस्ट्री की गंदी राजनीति और पावर के गेम ने भोले भाले सुशांत की जान ले ली। फ़िल्म इंडस्ट्री की अपनी एक दोगली दुनिया है। अपने अपने गुट हैं, गिरोह है और गुंडे भी। अगर आप इनकी जी हुजूरी कीजिए फ़िर ठीक, वरना ये आपको बाहर फेकने का पूरा बंदोबस्त किए होते हैं।
यहां, नेपोटिज्म के साथ साथ बाहुबल और धनबल भी कार्य करता है। यहां सत्ता सबसे ताकतवर लोगों के इर्द गिर्द घूमती है। और इन्हें ताकत कौन देता है? हम देते हैं! हम इन ताकतवर लोगों के फैन होते हैं। हमें इंतज़ार होता है इनकी फिल्मों का, कि कब फलाने सुपरस्टार की फ़िल्म रिलीज़ होगी। पहला दिन पहला शो देखने का क्रेज़। टिकट खिड़कियों पर लगी भीड़।
ऑनलाइन टिकट तो रिलीज से पहले बुक रहती है। कुल मिलाकर हम ही वो मिडिल क्लास लोग हैं जो इनके बैंक बैलेंस को बढ़ा रहे हैं, वो भी इनकी फ़ालतू की फ़िल्में देखकर। मैं दावा करता हूं कि “प्रेम रतन धन पायो” अधिकतर लोगों ने सिनेमा हॉल में देखी होगी, लेकिन अगर मैं “मसान” या फिर “निल बट्टे सन्नाटा” जैसी फिल्मों का नाम लूंगा तब आप अपने पेन ड्राइव को याद करेंगे।
सच्चाई तो यही है, कि हम आप सभी सुशांत की हत्या के अपराधी हैं। हम घटिया फ़िल्म ब्लैक से टिकट खरीदकर देख सकते हैं, साथ में स्नैक्स, कोल्ड ड्रिंक्स के अलग खर्चे लेकिन अच्छी फ़िल्म तो टोरेन्ट से ही देखेंगे।
सुशांत तो ख़ैर पॉपुलर और सफल अभिनेता थे। लेकिन जरा सोचिए, कितने मिडिल क्लास के बच्चे निकलते हैं इस मायानगरी की तरफ और कितने बन पाते हैं! बहुत जिदंगियां तो गुमनामी की मौत मरती है। उनकी मौत की ख़बर हम तक कहां पहुंचती है! वो स्ट्रगल करते करते हार जाते हैं।
करन जौहर और यश राज फिल्म्स जैसे फैक्ट्रियों के पास आपके लिए कोई अवसर नहीं होता है। फ़िर आते हैं, कुछ अच्छे डायरेक्टर। अच्छी फ़िल्म बनाते हैं। इन मिडिल क्लास के लड़के लड़कियों को मौका देते हैं। अगर अनुराग ने नवाज़ को “गैंग्स ऑफ वासेपुर” में नहीं लिया होता तो सोचिए वो भी आज कोई छोटा मोटा रोल करते होते।
हम इन जैसे निर्देशकों और कलाकारों की फ़िल्मों को पैसा देकर नहीं देखना चाहते हैं। जिस दिन हमने “एक था टाईगर” के बदले “उड़ान” जैसी फिल्मों के लिए टिकट खिड़की पर भीड़ लगाना शुरू कर दिया, यकीन मानिए इनकी सत्ता खिसक जाएगी।
इन लोगों की हस्ती ही हमारे पैसों के दम पर है और हमारे आपके अपने बच्चे इनकी गन्दी व लालची राजनीति का शिकार होते हैं। हमें बदलना ही होगा और इसकी शुरुआत किसी मिडिल क्लास के लड़के की फ़िल्म रिलीज़ के पहले दिन पहला शो देखकर कर सकते हैं।
विश्वास कीजिए, जब आप टिकट खरीद रहे होंगे तब सुशांत ज़रूर ऊपर से मुस्कुरा रहा होगा। सही मायने में यही सुशांत को सबसे अच्छी व सच्ची श्रद्धांजलि होगी –
दीपक सिंह