इस साझा काव्य संग्रह की पहली कवयित्री डाॅ. मोनिका शर्मा जी की रचनाओं में जो ‘स्त्री’ का ‘अक्स’ उभर कर पाठकों के सामने आता है। वह सहज एवं ‘जिम्मेदारी’ के साथ पाठकों के मन में स्त्री मन के सूक्ष्म मनोभावों का चित्रण प्रस्तुत करता है। एक स्त्री और कवयित्री के रूप में जो भी रचनायें की उन ‘लम्हों’ को खुद भी जिया है। उन सब का ‘इज़हार’ बड़े ही सरल शब्दों में, भावों के साथ चित्रण किया है। हम कह सकते हैं कि स्त्री मन की ‘परछाईं’ के साथ उसकी अरमानों की ‘राख’ से सभी रचनायें लिखी गयी है।
ऐसे घोर अंधेरे में
पहले भी तो साथ छोड़ा है
मुश्किल वक्त में न जाने
कितनों ने अकेला छोड़ा है
चाय के कप से उठती,
तेरे अहसासों की भाप,
मुझे गुनगुनाती,
तेरा अक्स बनाती।
शुभदा बाजपेयी जी की सभी रचनायंे गीतात्मकता से भरी हैं। गीतों की मधुरता आपके रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है। आपके विचार और भावनाओं को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त होते हुए देखा जा सकता है।
जो प्यासा हो स्वयं न जाने,
दूजा कितना प्यासा है।
स्वतः दुखी हो वह क्या जाने,
किसकी क्या अभिलाषा है।
प्रतिमा शर्मा जी की रचनायें ‘ज़िंदगी की कहानी’ को ‘बंजरा मन’ से अपने आस-पास के समाज में ‘परिवर्तन’ की आस में देखती हंै। आपकी रचनाओं में नारी मन को आहत करने वाली ‘बदसूरती’ के ‘फूल और जख़्म’ को ज़िंदगी के ‘रंगमंच की कठपुतलियों’ से नाचते हुये देखा जा सकता है। आपकी रचनायें पाठकों को नारी अस्मिता की तलाश की ओर ले जाती है।
फूलों का नाता है पुराना दर्द और काँटों से,
जो छीलते है अंतर्मन के, दीवारों की कोमल परते।
ये कठपुतलियाँ
सुत्रों से बंधी थिरकती
कूदतीं गिरती संभलती
गूंगी-बहरी
ध्वनि तो दी जाती है
नेपथ्य से
खुली आँखें पूछती हैं
सहस्त्रों अनकहे प्रश्न
अलंकृता शर्मा राय की रचनाओं में प्रेम, मनुहार, विरह के साथ ही ज़िंदगी की उलझी डोर को सुलझाने की कोशिश है। उस कोशिश में पाठक भी कवयित्री के मन में उठने वाले अनगित सवालों से रूबरू होता है।
दफ़नाने का हुनर बरसों में सीखा है मंैने,
अब दुनिया के हिसाब से जीना सीख लिया है मंैने।
शुष्क मौन निश्तेज नयन
कुछ बोल गए
अंतर्मन तक झकझोर गये
थर्रा गया साहस भी
तेरे मौन के शोर से
विकल विचलित अंतर्मन
बिन बोले कुछ बोल गए …
नेहा पाण्डेय जी की रचनाओं में ‘शब्द’, ‘बचपन’ की तरह मासूमियत लिये हुये हैं। अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने भावों को वह भावानुरूप प्रस्तुत कर देती है। वह बड़ी सहज भाव से कहती भी है.. ‘स्वीकार किया मैंने कि अपनी रचनाओं के साथ चलना चाहती हूँ’ वहाँ तक, जहाँ तक पाठक जा सके। उनकी रचनायें ‘मिट्टी के बर्तन’ सी कच्ची तो है पर उस कच्चेपन के साथ भी सच्ची भी है।
ये जीवन यदि संघर्ष है तो
संघर्ष स्वीकार किया मैंने,
है कठिन राह काँटों की तो
सहर्ष स्वीकार किया मैंने।
मैंने देखा है उसके सर से भारी बोझ को फिसलते हुए,
मैंने देखा है उसके हाथों की उँगलियों को तड़पते हुए,
मैंने देखा है उसकी इच्छाओं को घुट-घुट कर मरते हुए
तो कैसे कह दूँ जीवन का हर रंगमंच रंगीन होता है!
कभी-कभी तो ये जीवन आँसुओं सा नमकीन होता है।
सोनिया ‘सूर्यप्रभा’ जी रचनाओं में ‘जीवन के कैनवास पर’ स्त्री मनोभावों की उकेरे हुई अनगित रूप देखने को मिलते हैं। इसमें नारी मन की ‘सुलगती सी ज़िंदगी’ की कहानी से लेकर ‘ऐ ज़िंदगी’ से ‘सुनो ज़िंदगी’ तक का एहसास है।
अब जबकि ज़िंदगी बन गई है तमाशा
तो क्यों ना इस तमाशे को पूरा किया जाए
जो किरदार मुकम्मल हो गया मेरा
उस पूरे क़िरदार को जमकर जिया जाए
कोई कहानी नहीं है तो ना सही
अपनी टूटी-फूटी ज़िंदगी के किस्सों को फिर से बुना जाए
पूनम सक्सेना जी रचनाओं में सूफ़ियों की रूहानियत है। उर्दू की बहुलता लिये हुये सभी रचनायें एक से बढ़कर एक है।
कौन कहता है कि,
अपने अंतस में शांति नहीं होती।
जो शांति अपने भीतर होती है,
वो कहीं नहीं होती।
कौन कहता है कि,
अपने अंतस में आनन्द नहीं होता।
जो आनन्द अपने भीतर होता है,
वो कहीं नहीं होता।
डाॅ. ज्योति थापा जी की रचना की ओर यह उनका ‘पहला कदम’ है जो ‘दो आँखों’ में ‘प्रार्थना’ बसी है उस ‘बंजारा’ ज़िंदगी के लिये जो ‘ख़्वाहिश’ लिये उस प्रिय की याद में ‘नींद नहीं आती’ का कारण है जो उनकी रचनाओं में झलकता है शायद इसीलिए रचनाओं में भावों की तीव्रता और भी प्रखर हो उठती है। जिसे वो ‘तेरी तस्वीर’ के रूप में प्रस्तुत करती है किंतु उसके चले जाने पर ‘रूकती नहीं ज़िंदगी’ की बात करती हुई रचनायें आगे की ओर बढ़ जाती है।
रुकती नहीं जिं़दगी
किसी के चले जाने से
बस कुछ देर ठहर जाती है
उसके लौटने की उम्मीद में
रुख़सत भी हुए वो यूँ
बिना कुछ कहे
तभी ये दिल मानने को तैयार नहीं
साक्षी शांडिल्य जी की रचनायें ‘आदि और अंत’ से ‘मैं से हम’ की बात करती है। आपकी रचनाएं ‘एक प्यार का नगमा’ लिए पाठको़ं के सम्मुख उपस्थित रहती हैं।
आज ख़्याल तुम्हारा कई दिनों बाद आया
जैसी सर्दी की रात में यकायक बरसात आया।
इन पन्नों पर बस जाना तुम बस इतना वफ़ा निभाना तुम
जो साथ मिला ना कभी तेरे जाते जाते दे जाना तुम।
ललिता ‘नारायणी’ जी की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग देखने को मिल जाते हंै। कवयित्री की रचनायें ‘कितने भरे हुये हो तम से’ निकल कर ‘हमारी गली’ से पाठकांे को रचना के ‘अक्षयफल’ का रसास्वादन कराती हैं।
एक गली के नुक्कड़ पर,
सारे मज़हब मिल जाते थे,
घर से गुझिया चुरा-चुराकर,
सबको खूब खिलाते थे।
नूतन योगेश सक्सेना जी की रचना ‘ऋतुराज बसंत’ में बसंत की मादकता का पूरा चित्रण उतर आता है। रचना में आंचलिक सोंधापन लिये अमुवा, कोयलिया, फगुआ, पूरवा आदि शब्द आते हैं जो लोकगीतों की ताजगी लिए हुए रहते हैं।
अमुवा की डाली पर कोयलिया ने स्वर साधा
ढोल, चंग की थाप ने सबका मन बाँधा
कामदेव ने प्रेम की कमान पर फूलों का बाण साधा
हुआ हर प्रेमी का मन मोहन, और गोरी का मन
राधा फिर बसंत आया सखी, मन में हर्ष-उल्लास लिए।
अल्पना श्रीवास्तव जी की रचनायें ‘मौन’ होकर भी पाठको़ं के साथ ‘पलाश के फूल’ सा ‘खूबसूरत रिश्ता’ जोड़ लेती हैं। कवयित्री ने भावों के ‘रूहानी रिश्ते’ को अपने ‘वजूद’ के साथ ‘चंद अरमा’ लिये ‘तन्हाई’ के पल में भी पाठको़ं को जोड़े रखती है। कवयित्री के रचनाओं की सबसे बड़ी खूबी ये है कि पाठक तुरंत रचनाओं की भाव भूमि पर उतर जाता है।
मौन रहकर बहुत कुछ कह रहे हो तुम,
कैसे इस निःशब्द गुंजन को सह रहे हो तुम।
मेरे बिखरे हुये वजूद को संवारा उसने,
मुझे जीना है यह एहसास कराया उसने।
साक्षा काव्य संग्रह ‘भाव मंजरी’ में इंक पब्लिकेशन ने बारह कवयित्रियों को स्थान दिया है। सभी कवयित्रियों की भावों में रची पगी रचनायें निश्चय ही काव्य पाठकों को पसंद आयेगी।
अंत में सभी कवयित्रियों का आभार एवं इंक पब्लिकेशन का भी आभार …..।
डाॅ. विनय कुमार श्रीवास्तव
मोबाइल: 9616795276
असि.प्रो0 (हिंदी) राजकीय महाविद्यालय
गैरसैंण, चमोली, उत्तराखंड।