प्राचीन सात आश्चर्यों मे से एक है मिस्र का पिरामिड ममी – किसी मृत शरीर पर लेप आदि लगाकर मृत शरीर को सालो तक सुरक्षित रखने के तरीको को ममी कहा जाता है और लोगो का ऐसा मानना है की मिस्र के पिरामिड के अंदर ममी को रखा गया ह।ममी की उत्पत्ति प्राचीनकाल मे मिस्र के लोगो द्वरा हुई। मिस्र के लोग और बाकी देशो मे लोग अपने करीबी रिसतेदार और प्रिय जानवरो की मृत्यु के बाद उनकी ममी बनाकर सालो तक उन्हे संभाल कर रखते थे | मिस्र मे लगभग एक मिलयन ममी है और भी ऐसे कई देश है जहा पर ममी आज भी पाई जाती है।
ममी का मतलब क्या है
ममी अरबी भाषा के मुमिया से बना बना हुआ है जिसका अरबी भाषा मे अर्थ होता है मोम या तारकोल के लेप से रखी गयी वस्तु।अगर आपको लगता है की मिस्र मे ममी बनाने की शुरुवात हुई थी तो ममी शब्द प्राचीन मिस्र के शब्द है तो आप गलत है।ममी क्यो बनाया जाता था
प्राचीन मिस्र और भी कई देशो मे लोग पुनर्जन्म मे विश्वास रखते थे और उनका मानना था की मृत व्यक्ति के शरीर को संभालकर रखना चाहिए। ऐसा करने से मृत व्यक्ति अपने शरीर को पा सकता है और इसी कारण प्राचीन समय के लोगो ने ममी बनाना चालू किया और आज तक ममी बनाने की प्रक्रिया चल रही है।
तैयारी ममी बनाने की
पहले के समय एक ममी बनाने मे 70 दिन लग जाते थे और ममी को बनाने के लिए धर्मगुरु और पुरोहित के साथ साथ विशेसज्ञ भी होते थे।ममी बनाने के लिए सबसे पहले मृत शरीर की पूरी नमी को खत्म किया जाता है और ऐसा करने मे कई दिन का समय लगता था। जब शरीर की नमी खत्म हो जाती थी तो पूरे मृत शरीर पर परत दर परत काटन की पट्टिया लपेटा जाता था।जब पूरे शरीर पर पट्टी लपेट ली जाती थी तो शरीर के आकार से मिलते जुलते लकड़ी के ताबूत तैयार किए जाते थे और फिर इन ताबूत को रंगा जाता था और यह सब जब पूरा हो जाता था तब धर्मगुरु के मतानुसार इस पर धार्मिक वाक्य आदि लिख दिया जाता था और एक धार्मिक समारोह करके ताबूत को शरीर सहित चबूतरे पर सम्मान के साथ रख दिया जाता था।
ममी का इतिहास काफी पुराना है। कुछ दिनों पहले बीबीसी पर सुर्खी में रही एक घटना भी आपसे शेयर कर रहा हूँ जिसमे एक भारतीय द्वारा ममी में जान फूंकने की बात कही गयी थी-
एक भारतीय ने जान फूंक दी ४५०० साल पुरानी ममी में
मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय में रखी गई 4500 साल पुरानी ममी फिर से अपने पुराने रूप में वापस आ गई है. ममी के कई हिस्से क्षतिग्रस्त हो गए थे। संग्रहालय के मुख्य संरक्षक अनुपम साह ने म्यूज़ियम में 1920 से रखी ममी की मरम्मत की है।ये ममी मिस्र की राजकुमारी नाएशू की है जो फैराओ VI की बेटी थीं। वो 2500 बीसी के करीब पैदा हुई थीं।एक साल पहले क्यूरेटरों ने पाया कि देख-रेख की कमी और सड़न को ठीक करने के तरीके नहीं जानने के कारण ये ममी ख़राब हो रही है।
दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और संग्रहालयों के विशेषज्ञों की सलाह ली गई। इसमें लंदन का ब्रिटिश म्यूज़ियम और मिस्र के कई संग्रहालयों शामिल थे लेकिन इससे फायदा नहीं हुआ।इस बीच, ममी की ऊपरी परत में दरारें आने लगीं और ये टूटने लगी।ममी के चेहरे, कंधे, छाती और पैरों की परतें निकलने लगीं। ऐसा होने से पट्टियां दिख़ने लगीं जिससे वो ढीले होकर खुलने लगीं। इसका असर अंदरुनी पट्टियों पर भी दिखने लगा था।इन स्थितियों में संग्रहालय के अधिकारियों ने साह को मदद के लिए बुलाया।
उऩ्होंने इस प्रोजेक्ट पर मार्च अंत से लेकर अप्रैल तक काम किया। इसमें विशेषज्ञों के छह सदस्यों की टीम शामिल रही। अनुपम साह और उनकी टीम ने पट्टियों को बिना रसायन या ‘बाहरी’ चीज़ की मदद लिए दोबारा लगाया। इस प्रक्रिया में कुछ हफ़्तों का वक्त लगा।राजकुमारी नाएशू की ममी हैदराबाद स्टेट म्यूज़ियम में 1920 में आई। इसका भारत पहुंचने का सफ़र मिस्र से शुरू हुआ था।
हैदराबाद के निज़ाम मीर महबूब अली खान के दामाद नज़ीर नवाज़ जंग ने राजकुमारी की ममी को मिस्र में खरीदा था। हालांकि उन्होंने इसे किसी निजी कलेक्टर से ख़रीदा था या म्यूज़ियम से, ये साफ़ नहीं है।माना जाता है कि इस ममी को खरीदने के लिए उन्होंने एक हज़ार पाउंड से ज्यादा खर्च किए थे। नज़ीर नवाज़ जंग ने इस ममी को अगले निज़ाम मीर ओस्मान अली खान को तोहफ़े में दिया जिन्होंने इसे मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय को दान कर दिया। तब से यह ममी कांच के ताबूत में रखी हुई थी।
तेलंगाना सरकार के पुरातत्व और संग्रहालय के निदेशक एनआर विसालची ने बताया था कि भारत में मौजूद छह प्रामाणिक मिस्र की ममियों में से नाएशू अकेली ऐसी ममी है जो दक्षिण भारत में मौजूद है। हाल तक माना जाता था कि नाएशू की मौत 18 साल की उम्र में हुई थी जब वो गर्भवती थीं लेकिन हाल ही में संग्रहालय की ओर से किए गए मेडिकल और दूसरे टेस्ट में पता चला कि उनकी उम्र करीब 24 साल थी।
साह के मुताबिक मिस्र की ज़्यादातर ममियों में मस्तिष्क का कोई हिस्सा नहीं होता है लेकिन इस ममी में दिमाग के कुछ हिस्से सही सलामत थे।विशेषज्ञों की टीम नियमित रूप से इस्तेमाल होने वाले उपकरण और प्रक्रियाओं से ममी की मरम्मत नहीं कर सकते थे और यही इसे पेचीदा बना रही थी। ममी को ठीक करने की प्रक्रिया जटिल होती चली गई क्योंकि जांच की सामान्य प्रक्रिया, ट्रीटमेंट का तरीका, इंफ्रा-रेड और अल्ट्रा वायलेट किरणों और रंग का विश्लेषण करने के लिए स्पेक्ट्रोमीटर के तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।बताया गया कि, “हमें ममी को रूई की परतों में लपेटकर जांच केंद्र ले जाना पड़ा।
वहां हमने इसकी हड्डियों का एक्स-रे और सीटी स्कैन करवाया। इस काम में बेहद सावधानी बरतनी पड़ी। धूप कड़ी होने से पहले इसे वापस भी ले आए।” स्कैन और एक्स-रे रिपोर्ट ने वैसे तो ममी को ‘फिट’ बताया लेकिन अभी भी ममी को कुछ कॉस्मेटिक सुरक्षा की ज़रूरत थी।एनआर विसालची के अनुसार इस ममी को अब नाइट्रोजेन चेंबर में रखा जाएगा ताकि इस पर ऑक्सीजन का असर ना हो और इसे जर्जर होने से भी बचाया जा सके।आइये अब चर्चा करता हूँ ममी को बनाने के बारे में-
ऐसे बनती थी ममी
प्राचीन मिस्र के लोगों का पुनर्जन्म में विश्वास था और वे मानते थे कि मृत व्यक्ति के शरीर को संभालकर रखा जाना चाहिए ताकि अगले जन्म में वो उस शरीर को पा सके।ममी शब्द प्राचीन मिस्र का नहीं बल्कि अरबी भाषा के मुमिया से बना है जिसका मतलब होता है मोम या तारकोल के लेप से सुरक्षित रखी गई चीज़।ममी बनाने का काम मिस्र में बहुत ही धार्मिक श्रद्धा भाव से किया जाता था।
इस काम में लगभग 70 दिन का समय लगता था और हर स्तर पर धर्मगुरू और पुरोहित मौजूद रहते थे।प्राचीन मिस्र में हर शहर में ऐसी दुकानें होती थीं जहाँ ममी बनाने का लोशन, तेल, उपकरण और पट्टी वगैरह मिलते थे।इसके अलावा यह काम सिर्फ़ माहिर लोग करते थे जिनकी समाज में डॉक्टर जैसी प्रतिष्ठा होती थी।ममी बनाने से पहले मिस्र के लोग उसे अपनी तरह से पवित्र करते थे और कई अंगों को बाहर निकाल दिया जाता था।
मिस्र में ममियों का मिलना आम बात है जिनमें मृत व्यक्ति का दिमाग भी होता था जिसे नाक के रास्ते धातु की छड़ों से खोद-खोदकर निकाला जाता था।शरीर के बाईं तरफ़ एक चीरा लगाकर आँतों, लिवर, फेफड़ों और अन्य अंदरूनी अंगों को निकालकर अलग-अलग बर्तनों में सुरक्षित रखा जाता था।लेकिन मृत शरीर के ह्रदय को नहीं छेड़ा जाता था इसके बाद शुरू होती लेप लगाकर शरीर को सुरक्षित करने की प्रक्रिया।
सबसे पहले शरीर की पूरी नमी को समाप्त किया जाता था और इस काम में कई दिन लगते थे। मिस्र के खुश्क मौसम के कारण ये काम थोड़ा आसान हो जाता था। शरीर से नमी समाप्त होने के बाद उस पर कई तरह के रोगनों से मालिश की जाती थी। मिस्र में लोग अपने प्रिय जानवर की भी ममी बनाते थे फिर पट्टियाँ लपेटने का काम शुरू होता था, पूरे शरीर पर पतली सूती पट्टियों की लगभग 20 परतें लपेटी जाती थीं।
पट्टी लपेटने के काम के बाद शुरू होती थी कलाकारी। कई कलाकारों को काम पर लगाया जाता था जो बड़ी मेहनत से शरीर के आकार से मिलता-जुलता लकड़ी का ताबूत बनाते थे। इन ताबूतों को रंगकर मृत व्यक्ति के चेहरे सहित उसका रूप दिया जाता था। इसके बाद धर्मगुरू बताते थे कि इन ताबूतों पर क्या और कैसे लिखना है। इसके बाद एक बड़ा धार्मिक समारोह करके ताबूत को शरीर समेत एक चबूतरे पर सम्मान के साथ रख दिया जाता था।
अब कुछ रोचक तथ्यों पर बात करते हैं-बालो से करते थे नफरत
मिस्र सभ्यता के लोग बालों से बेइंतहा नफ़रत करते थे। बालों के प्रति उनकी नफ़रत इतनी थी कि जितनी दो दुश्मन भी आपस में नहीं करते होंगे। उनके मुताबिक, शरीर पर बाल होना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए वो लोग शरीर से हर तरह के बाल को साफ़ कर देते थे। मिस्र के लोगों की फोटोज़ में सिर पर जो बाल नज़र आते हैं, वो असली नहीं, बल्कि विग हैं। ये लोग विग को टोपी की तरह पहनते थे, वो भी सिर्फ़ इसलिए ताकि सूर्य की सीधी धूप उनके सिर पर न पड़े।
खूब मेकअप भी करते थे
मिस्र में मेकअप करना आवश्यक था। ये लोग सुरमा का प्रयोग ज़रूर करते थे। वो मानते थे कि हरा और काला सुरमा उन्हें सूर्य की किरणों, मक्खियों तथा हानिकारक संक्रमणों से बचाए रखता था। इसके अलावा ये सूर्यदेव (होरस) को श्रद्धांजलि और नमन करने का एक तरीका भी था।मुंह को साफ रखते थे-इन लोगों के लिए दांतों को साफ़ रखना इतना महत्त्वपूर्ण था कि वो ममियों को टूथ पिक के साथ दफनाते थे।
माना जाता है कि प्राचीन मिस्र के निवासियों ने ही एक तरह की टूथपेस्ट की शुरुआत की थी। इसे बनाने में वे बैल के खुरों का पाउडर, जले हुए अंडे की छाल तथा राख के मिश्रण का प्रयोग करते थे।
नौकर भी राजा के साथ दफनाए जाते थे
ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है कि मिस्र में फराओ (राजाओं) के मरने के बाद उनके नौकरों को भी उनके साथ ज़िंदा दफ़ना दिया जाता था। पहले लोग नौकरों को सिर पर वार करके बेहोश कर देते थे और फिर दफ़ना देते थे।
अधिकतर निवासी ईसाई थे
माना जाता है कि सन् 400 से 800 के बीच मिस्र के ज़्यादातर लोग ईसाई धर्म के अनुयायी थे। लेकिन 10वीं सदी के मध्य में मुसलमानों के हमले के बाद बड़ी संख्या में लोगों का धर्म परिवर्तन हुआ और उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया। बाद में उनकी कॉप्टिक भाषा की जगह भी अरबी भाषा ने ले ली।
क्लियोपेट्रा मिश्र की नही थी
अलेक्जेंड्रिया में जन्मी हुई क्लियोपैट्रा यूनानी परिवार मक्लोडिया से ताल्लुक़ रखती थीं। क्लियोपैट्रा टॉलेमी वंश की पहली सदस्य थीं, जो कि मिस्र की भाषा बोल सकती थीं। लेकिन वो मिस्र वंश की नहीं थीं।
आजाद थी मिश्र की महिलाएं
पूरी दुनिया के विपरीत, मिस्र की महिलाएं जमीन खरीद सकती थीं, जज बन सकती थीं और अपनी वसीयत लिख सकती थीं। अगर वह बाहर काम करती थीं, तो उन्हें समान वेतन दिया जाता था। वह तलाक़ भी दे सकती थीं और फिर से शादी भी कर सकती थीं।वह शादी से पहले कॉन्ट्रैक्ट भी कर सकती थीं, जिसमें वह शादी में लाई गई वस्तुओं के बारे में अपने विचार रख सकती थीं।
मिश्र के फराओ मोटे होते थे
वैसे तो प्राचीन मिस्र के चित्रों में आपने देखा ही होगा कि यहां के फराओ पतले और तन्दुरुस्त होते थे, लेकिन ममियों के परीक्षण के बाद यह बात सामने आई कि फराओ की कमर चौड़ी होती थी। उनकी खुराक में शराब, शहद, बीयर तथा ब्रेड और अधिक चीनी वाले पदार्थ थे।उनमें से कई मधुमेह के शिकार भी थे।
दुनिया की पहली शान्ती सन्धि मिश्र ने की थी
200 सालों के बाद भी मिस्रवासियों और हित्तीट्स के बीच की लड़ाई का कोई नतीजा नहीं निकला। 1259 में दोनों राज्यों को एक-दूसरे से ख़तरा था। रामसेस और हततुसिलि-3 ने एक ‘शांति संधि’ की और यह वादा किया कि वह किसी भी तीसरे आक्रमणकारी के खिलाफ एक-दूसरे की मदद करेंगे।
पहला गर्भ प्रतिरोधक मिश्र में बना था
ये बात बेहद रोचक है कि गर्भधारण से बचने के लिए प्राचीन मिस्रवासी मिट्टी, शहद और मगरमच्छ के गोबर का एक मिश्रण बनाते थे। उस मिश्रण को महिला की योनि में डाल देते थे, जिससे महिला गर्भवती नहीं होती थी। इनका मानना था कि मगरमच्छ का गोबर एसिडिक होता है, जो शुक्राणुओं को मारता है।
८० लाख कुत्तों की ममी बनी थी
प्राचीन मिस्र में कुत्तों का इस्तेमाल अनुबिस नाम के देवता के साथ संपर्क साधने के लिए किया जाता था। मिस्र के सकारा में इस देवता के मंदिर के पास 80 लाख कुत्तों और अन्य जानवरों की ममी बनायी गई थी।सदियों से कुत्तों को इंसानों का वफादार माना जाता रहा है। प्राचीन मिस्र में कुत्तों का इस्तेमाल भेड़िए के सिर वाले अनुबिस नाम के देवता के साथ संपर्क साधने के लिए भी किया जाता था।
मिस्र के सकारा में इस देवता के मंदिर के पास मिली भूमिगत सुरंगों में इसी उद्देश्य से 80 लाख कुत्तों और अन्य जानवरों की ममी बनायी गयी थी। प्राचीन मिस्र में ऐसा माना जाता था कि कुत्ते अनुबिस देवता के पास जाकर उनके पक्ष में बोलेंगे और उनके जो परिजन मर चुके हैं, उनकी मदद करेंगे।
सकारा में इन ममियों को कई सुरंगों में पाया गया। समय के साथ कई सुरंग मकबरे की लूट करने वाले गिरोह के कारण क्षतिग्रस्त हो गये और कई ममियों का इस्तेमाल खाद बनाने में कर लिया गया। बाकी मची ममियां एक दूसरे के ऊपर रखी हैं और अधिकतर की हालत बदतर है।
ऐसा माना जा रहा है कि ये सुरंग 750 से 30 ईसा पूर्व के बीच के हैं।शोधकर्ताओं की अगुवाई करने वाले कार्डिफ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पॉल नकोलसन के मुताबिक सकारा में व्यापारियों का समुदाय रहता था, जो अबुनिस देवता की ताम्र मूर्ति बेचता था।यहां के पुजारी देवता की पूजा करते थे और लोग देवता के सम्मान में ममी बनाये जाने वाले कुत्तों की पालते थे।
मिश्र की ममी में भी मिलते हैं हार्ट अटैक
एक नए शोध के मुताबिक हृदय की धमनियों में चर्बी का जमा होना मात्र आधुनिक जीवनशैली का परिणाम नहीं है। प्राचीन काल की ममियों में भी ये रोग काफी पाया गया।इस शोध में स्कैन के जरिए ममी में मौजूद हृदय रोगों का पता लगाया गया।
लांसेट में जब 4,000 साल पुरानी 137 ममियों पर एक शोध किया गया तो पाया गया कि हर तीसरी ममी हृदय रोग (ऐथेरोक्लेरोसिस) से ग्रस्त है।जबकि अधिकांश लोग यही मानते आए हैं कि हृदय रोग और हृदयाघात जैसी बीमारियां आधुनिक जीवनशैली की पहचान, धूम्रपान और मोटापे जैसे कारकों से जुड़ी हुई है।
शोध के ये नतीजे प्राचीन काल के लोगों के बुनियादी स्वभाव का संकेत देते है।दिल का रोगइससे पहले हुए और कई शोधों से भी मिस्र की ममियों में मौजूद हृदय रोग (ऐथेरोक्लेरोसिस) का पता चला है। मगर तब ये अनुमान लगाया गया था कि इनके हृदय रोग का कारण इनके समाज के अति उच्च तबके से आना और भोजन में वसा की अत्यधिक मात्रा का मौजूद होना हो सकता है।
ये बीमारी प्राचीन काल के लोगों के बीच किस कदर फैली हुई थी, इसकी बेहतर तस्वीर देखने के लिए शोधकर्ता ने सीटी स्कैन का इस्तेमाल किया।उन्होंने मिस्र, पेरु, दक्षिणपूर्वी अमरिका और अलास्काके एलुथियन द्वीप के ममियों की जांच-पड़ताल की। इन ममियों में से 47 या 34 फीसदी ममी में पूर्ण या आंशिक रुप से ऐथेरोक्लेरोसिस पाया गया। धमनियां सलामतजहां ममी की धमिनयां सही सलामत पाई गई, वहां ऐथेरोक्लेरोसिस की पुष्टि हुई। वहां मौजूद हृदय की सख्त नाड़ियां इस बात की स्पष्ट संकेत दे रही थीं।
ममीकुछ स्कैन में धमनियां नहीं दिखी, लेकिन कड़ी परत अभी भी वहां मौजूद थी जहां कभी पहले धमनियां रही होंगी।वर्तमान सच यह है कि बढती उम्र के लोगों में इस रोग के भरपूर लक्षण मौजूद होते हैं।शोधकर्ता के अनुसार कि ये नतीजे चौंकाने वाले हैं। यह शोध अलग-अलग वैश्वक क्षेत्रों में विभिन्न जीवनशैली और काल के लोगों में होने वाली बीमारियों के बारे में पता लगाने में हमारी मदद करता है।कुलीन वर्ग का हिस्सा नहींकैनसस सिटी के सेंट ल्यूक मिड अमेरिकन हार्ट इंस्टीच्यूट के प्रोफेसर रानडाल थॉम्पसन बताते थे कि भिन्न जीवनशैली और आहार वाली अलग-अलग संस्कृतियों में रहने वाले लोगों में समान स्तर पर ऐथेरोक्लेरोसिस का मौजूद होना यह बताता है कि प्राचीन मान्यताओं के इतर प्राचीन काल में भी यह बीमारी आम थी।
इसके अलावा, मिस्र के बाहर जितनी भी ममी का हमने अध्ययन किया है वे बताती हैं कि, उनके हृदय रोग के पीछे उनकी स्थानीय जलवायु थी। ये लोग उस खास कुलीन वर्ग का हिस्सा नहीं थे, जिससे प्राचीन मिस्र में अध्ययन के लिए ममी को चुना गया था। बल्कि ये आम लोग थे।जीवनशैलीउन्होंने बताया कि आमतौर पे यही सोचा जाता है कि यदि आधुनिक इंसान औद्योगिकरण शुरु होने, यहां तक कि कृषि की संस्कृति शुरु होने के पहले की जीवनशैली अपनाता तो ऐथेरोक्लेरोसिस से बचा जा सकता था।
ये निष्कर्ष हमारी पुरानी धारणाओं पर संदेह खड़ा कर रहे हैं। इस शोध के अनुसार कम से कम इतना तो तय है कि ऐथेरोक्लेरोसिस से जुड़ी हमारी समझ अधूरी है।ब्रिटिश हार्ट फाउण्डेशन में हृदय रोग विभाग की वरिष्ठ नर्स मॉरिन तालबोट का कहना था कि यह अध्ययन हमें प्राचीन लोगों के जीवन को समझने में मदद करती है। अच्छा खान-पान, धूम्रपान से परहेज और सक्रिय जीवन से आप अपने दिल को हर खतरे से दूर रख सकते है।
(प्रस्तुत पोस्ट हेतु कई श्रोतों का साभार यथास्थान उपयोग किया गया है।) -निखिलेश मिश्रा