ख्वाहिशें तो सदा अधूरी ही होती हैं, क्योंकि पूरी होते ही वे ख्वाहिशें नहीं रहती और जिंदगी है ही अधूरी ख्वाहिशों के पीछे दौड़ने का नाम। फिर चाहे वह प्रेम की ख्वाहिश हो या जिंदगी की छटपटाहट से जन्मी ख्वाहिशें। स्त्री मन तो अधूरी ख्वाहिशों का घर है क्योंकि समाज उन्हें पूरा करने की इजाज़त और मौका ही नहीं देता।
कवियित्री पूनम पांडे जी, पूनम के चांद सी उजियाती, स्त्री मन की उथलपुथल को शब्दों में समेटती, प्रेम और उससे जुड़ी ख्वाहिशों को बेबाकी से बयां करती हैं अपने काव्य संग्रह ‘मेरी अधूरी ख्वाहिशें’ में। जहां उनके शब्दों के साथ सफर करते हुए आप भी पहुंच जाते हैं अधूरी ख्वाहिशों के जंगल में।
पूनम जी की कविताओं में प्रेम का एक ऐसा झरना है जो आपको आकर्षित करता है और आप जैसे ही पास जाते हैं आप को भिगो देता है प्रेम में
तुमसे मोहब्बत के ख्याल से ही
मेरा हर शब्द गजल बनने लगा है
जब जब ख्याल आता है तेरा
मुझ में इश्क दौड़ जाता है
तुम्हारी न होकर भी
सिर्फ तुम्हारी होना
हां सच है कि प्रेम कई बार,
बार बार होता है
क्योंकि यह स्वयं में पल्लवित
एक श्रृंखला की तरह है
जो बनती बिगड़ती रहती है
पर मिटती नहीं
लूंगी एक आठवां वचन भी
जब तक ये आंखें खुली रहें
तुम रहना यूं ही मेरे संग मेरे
हर कदम पर
सोफे के कुशन में सिमटी, तुम्हारी यादें
साइड टेबल पर पड़ा, तुम्हारा चश्मा
जो गलती से अक्सर ही, छोड़ जाते हो तुम
और छोड़ जाते हो, मेरे गालों पर
अपने हाथों की, हल्की छुवन
दुख तुमसे जुदा होने का नहीं
खुद से बिछड़ने का है
कि अब मैं वो न रहूंगी
जो उन लम्हों में थी
तुमसे मेरा प्रेम जैसे
तपती रेत के मरुस्थल में, बारिश की बूंद जैसा
हमारी ख्वाहिशें हमें परिभाषित करती हैं। इसलिए कवियित्री की ख्वाहिशें उनके कोमल स्त्री हृदय के बारे में बहुत कुछ कहती हैं
कुछ अधूरी, शोर मचाती, चीखती ख्वाहिशें
और कुछ चटकते जज्बात
तुम्हारे दर्द को
अपनी चुन्नी की कोर में
बांध लेना चाहती हूंँ
चेहरा का क्या, ये तो एक अक्स है धुंधला सा
बस मेरी रूह को छू लो तुम
सुनो न, आज कुछ वक्त निकाल लो न, अपनी व्यस्ताओं से
तुम्हारे संग कुछ पल जीने का मन है
न जाने कबसे प्यास अधूरी है
तुमसे मिलने की
प्यास मेरी तुम बुझा दो न
बस सुबह शाम अपने प्रेम के नीर से
सींच देना मुझे
एक प्रेम का दिया
जला देना, मेरे हृदय के देहरी पे
कुछ पल के लिए सही निहार लेना
लिखती हूंँ मैं कविताएँ
पर लिखते लिखते
मेरी हाथों की हथेलियों में
तेरे नाम की लकीर खींच
देना चाहती हूंँ मैं
कि काश मैं भी कभी अमृता सा प्रेम लिखती
और तुम इमरोज़ सा समर्पण पढ़ते
लेकिन अगर ख्वाहिशें पूरी नहीं होती या उनमें समय लगता है तो होती है छटपटाहट जो शब्दों में से झांकने लगती है
किसी दिन तोड़ दूं सारी सीमाओं को
पलभर को लांघ लूँ समस्त वर्जनाओं
मैं भी बदल पाती, बन जाती पाषाण
तुम जैसे पाषाण की खातिर
कि दिन कितना चुप रहा
अनमनी कितनी सांझ रही
काश तुमने देह से परे भी कभी
मेरी जरूरतों को समझा होता
बस एक सवाल, जो सालों से मुझे छल रहा है
अगर तुम अजनबी थे तो लगे क्यों नहीं
और अगर मेरे थे तो मिले क्यों नहीं
स्त्री के मन को बयान करती हुई कुछ पंक्तियां दिल को छू लेती है
स्त्री तो इत्र समान होती है
कोई कवि, कोई लेखक
इसकी खुशबू को पन्नों पर
नहीं समेट सकता
कितनी ही कोशिशें कर ले
उसे पूरा कभी रच नहीं सकता
क्यों बन जाती है हम इतनी सहज
आहत मन से भी
किसी को क्यों नहीं कर पाती आहत
पर सुनो प्रेम के बिना
फिर भी जिया जा सकता है
जीने के लिए जरूरी होता है
आत्मा सम्मान, स्वाभिमान
दिल अभी भी वहीं अटका है शायद
तुम्हारी नीली वाली कमीज की, तीसरी बटन पर
संदेह के काई पर तो, रिश्ते फिसल ही जाते हैं
कितनी भी कोशिश कर लो, चल नहीं पाते
कवि मन से कवियित्री पूनम जी कहती हैं
सुना है मैंने, कवि जब किसी के प्रेम में पड़ जाते है
तो वह अमर हो जाते है
तेरे अलौकिक प्रेम
अलौकिक परिणय
और अलौकिक साहचर्य ने ही
मेरे शब्दों को जन्म दिया है
वो नहीं जानता रस, अलंकार, छंद, सार
इन सबसे परे है मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
इन खूबसूरत सी पंक्तियों के बाद पूनम जी के काव्य संग्रह ‘मेरी अधूरी ख्वाहिशें’ के लिए कुछ भी कह पाना कहना कम ही होगा। बस पूनम जी को इस काव्य संग्रह के लिए ढेरों शुभकामनाएं। वो लिखती रहें और हम पढ़ते रहे।
समीक्षक- डॉ. मोनिका शर्मा
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